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एक अपील

ऐ घर पे बैठे तमाशबीन लोग लुट रहा है मुल्क, कब तलक रहोगे खामोश शिकवा नहीं है उनसे, जो है बेखबर पर तु तो सब जानता है, मैदान में क्यों नही...

Saturday, 27 October 2012

दशहरा

जिसने किया था सीता का हरण
राम ने मारा था वो रावण
हर साल मर के लेता नया जनम
अब का है ये कैसा रावण

कागज़ के पुतले तो प्रतीक है
हम सब में छिपा बैठा है एक रावण
कागज के पुतले को दहन कर
क्या मार लिया अपने अंदर का रावण ?

बुराई पर अच्छाई की जीत का
त्यौहार है यह दशहरा
पर बुराई मिटने के बजाय
हो रहा और हरा भरा

बुराई तो तब हारेगी
जब हम अपने अंदर के रावण को मारे
आओ हम सब मिलकर बुराई ना करने
और बुराई का ना साथ देने का कसम खा ले 

Tuesday, 23 October 2012

सर्दी का मौसम

सिहर उठता है तन मन
जब चलती है मंद पवन
भाती मन को सूर्यकिरण
कि आया सर्दी का मौसम

हरित तृणों पर ओंस की बुँदे
लगती है मनभावन
सूर्यकिरण पड़ती जब इनपर
जैसे हो तारे करते टिमटिम

जहाँ भी देखो वहाँ दिखे
ऊनी कपड़ों में लिपटा बदन
आग का घेरा डाले है
आज यहाँ पर जन-जन

ठंडे पानी से नहाना
लगता है बहुत कठिन
सुबह जल्दी उठने का
नहीं करता है ये मन 

Sunday, 21 October 2012

सुनामी

याद आता है वो मंजर
जब कहर ढाया था समंदर
लहरों में थी उफान
आ गया था एक तूफ़ान

ऊँची लहरों ने किया प्रवेश
जैसे हो तबाही का श्री गणेश
गाँव हो या शहर
सब पर बरसा कहर

गाँव शहर सब डूबा लिया
मिट्टी में सबको मिला दिया
चली गई हजारों जान
गाँव शहर कर गया शमशान

सुनामी है इस कहर का नाम
बड़ी डरावनी है इसकी पहचान
रुंह तक काँप जाती है
जब जिक्र सुनामी की आती है 

Saturday, 20 October 2012

भ्रष्टाचार (corruption)

गहरी जमी है जड़े भ्रष्टाचार की
साफ़ नहीं दिखती नियत सरकार की
आरोप लगते है जब भ्रष्टाचार की
कहते है ये बात है बिना आधार की

एक चपरासी से लेकर अधिकारी तक
निजी से लेकर सरकारी तक
वकील से लेकर धर्माधिकारी तक
हो गए है सब भ्रष्ट, आम जनता है त्रस्त

राशन कार्ड की बात हो या वीजा कार्ड की
बात नहीं बनती बिना उपहार की
वृध्दावस्था पेंशन हो या विधवा पेंशन
बिना कमीशन होता है टेंशन

औद्योगिक घराना हो या कोई नेता
सबने मिलकर ही देश को लुटा
कालाधन का मामला हो या टैक्स चोरी की
खूब फायदा उठाते है कानून की कमजोरी की

घोटालों के लिए बनती है नई योजनाएं
नेता और अफसर मिलबांट कर खाए
किसानों की जमीन हड़प कर गए
देश को दीमक की तरह चट कर गए

Tuesday, 16 October 2012

लहू की धार बहना अभी बाकी है

अभी तो केवल आगाज है हुआ, राज़ से पर्दा गिराने का
जाने कितने राज़ का बेपर्दा होना अभी बाकी है

जुल्म और सितम का दौर अभी ठहरा नहीं है
दहकते अंगारों पर चलना अभी बाकी है

रहनुमा का नकाब लिए फिरते थे जो ज़ालिम
उनके चेहरों से नकाब का हटना अभी बाकी है

सिंहासन पर बैठे थे जो मुल्क को अपनी ज़ागीर समझकर
उन ज़ागीरवालों का सिंहासन से उतरना अभी बाकी है

सदियों से लुट रहे है जो वतन, वो अभी जिंदा है
उनको इस हिमाकत का सज़ा मिलना अभी बाकी है

लहू मांगती है जंग ए आज़ादी, धरती के सुर्ख लाल होने तक
अभी तो गिरा है थोड़ा ही लहू, लहू की धार बहना अभी बाकी है

Saturday, 13 October 2012

एक शख्स (अरविन्द केजरीवाल को समर्पित )

एक शख्स ने हिला दी है जड़े
सिंहासन पर बैठने वालों की
रोशन हुई है उम्मीदें
नाउम्मीदगी में जीने वालों की

लुटते थे जो बेख़ौफ़ वतन को
काँपने लगे है उनके भी हाथ
हर सड़क, हर गली मुहल्ले में
होती है बस उसकी बात


Friday, 12 October 2012

क्यों लगाया है उम्मीद मुसाफिर उनसे

क्यों लगाया है उम्मीद मुसाफिर उनसे
जो खुद नाउम्मीदगी का दामन थाम बैठे है
निकला है उन्हें तु जगाने
जो सोने का बहाना कर लेटे है


Thursday, 11 October 2012

हम यकीन करे भी तो किसपर करे


हम यकीन करे भी तो, किसपर करे 
यहाँ लोग दौलत के लिए, अपनों से दगा कर जाते है 

शराफत का चोला पहन, घूमते लोग 
बस्तियां उजाड़ते, नज़र आते है 

लोग कहते है जिसे, सच्चाई की मूरत 
वही लोगो से, ठगी करते हुए पाए जाते है 

रक्षक का तमगा ओढ़, फिरते है जो शान से 
भक्षक की तरह काम करते, नज़र आते है 

जनता की सेवा के लिए, सिंहासन पर बिठाया जिसे भी 
वही तानाशाहों की तरह, हुक्म फरमाते है 

जिन माँ-बाप ने मुश्किलों में पाला हमें 
लोग उन्ही माँ-बाप को, सड़क पर छोड़ जाते है 

सुबह शाम धर्म की बात करनेवाले 
अपनी तिजौरियों में, दान का पैसा छुपाते है 

पहरेदारी करना है जिनका काम 
वही चोरों से हिस्सा मांगते, नज़र आते है 

Wednesday, 10 October 2012

सुबह का इंतज़ार

छाया था घना कोहरा, काली अंधियारी रात,
सुबह का था इंतज़ार, कि हो सूरज से मुलाक़ात !
पल पल बीत रहे थे सदियों सी, सिंह रहा था दहाड़,
पतले वस्त्र थे तन पे और वो ठण्ड की मार !

कुंडली मारे सर्प, फन फैलाए रहा था फुफकार,
डर के भागे हम इधर उधर, चुभ गए कांटे कई हज़ार !
बिच्छू ने मारा डंक, पूरा विष हम पे दिया उतार,
विष धीरे धीरे चढ़ने लगा, हम किसको लगाते पुकार !

अजगर भी मुँह खोल बड़ा, सरक रहा था हमारी ओर,
समझ नहीं आ रहा था, भागे हम किस छोर !
सोचा पेड़ पर जाऊ चढ़, तो कम होगा साँप बिच्छू का डर,
कुछ दूर चढ़ा था ऊपर, पैर फिसला आ गिरा जमीं पर !

हाथ पांव थे सलामत,चोटिल हुआ कमर,
दर्द से दिल कराह उठा, दिमाग पर हुआ असर !
गिरा फिर उठ ना सका, हिम्मत दे गई जवाब,
चींटियों को मिल चूका था, पसंदीदा कबाब !

पेड़ के नीचे दर्द संग, फिर गुजरी पूरी रात,
धीरे धीरे सूरज उगने लगा, जगी थोड़ी सी आस!
धन्य है वो मानव , जिसने लिया मुझे देख,
वाहन की व्यवस्था कर, अस्पताल दिया भेज !

Tuesday, 9 October 2012

कदम बढ़ा तो साथी संग हमारे

कदम बढ़ा तो साथी संग हमारे
नदियों की धार पलट जायेंगे
क्यों डरता है इन तानाशाहों से
इनके तो तख़्त और ताज उलट जायेंगे

कब तक सहेगा ये जुल्म और सितम
उठा संग हाथ हमारे सितमगर दूर छिटक जायेंगे
लुट रहे है ये सदियों से हमें
इनकी तिजौरियो में हमारे ताले लटक जायेंगे

Monday, 8 October 2012

वो भगवान कहाँ है ?

बैठा है दुर्योधन, हर गली मोहल्ले में
करता है रोज एक द्रोपती का चीरहरण
भरी महफ़िल में द्रोपती की लाज बचानेवाला
वो श्याम कहाँ है ? वो श्याम कहाँ है ?

है कंसो का राज यहाँ
करते है जनता पे अत्याचार
जनता का दुःख हरनेवाला
वो गोपाल कहाँ है ? वो गोपाल कहाँ है ?

है रावणों की भरमार यहाँ
जो करते है सीता का हरण
रावण के कब्जे से सीता को छुड़ानेवाला
वो राम कहाँ है ? वो राम कहाँ है ?

यहाँ मित्र ही मित्र को दे रहा दगा
हर कोई एक दूसरे को ठग रहा
सच्ची मित्रता का पाठ पढ़ानेवाला
वो हनुमान कहाँ है ? वो हनुमान कहाँ है ?

हैवानियत और जुल्म चरम पर पहुंची
दम घुट रहा सच्चाई का
दुष्टों का संहारकर्ता सबका पालनहार
वो भगवान कहाँ है ? वो भगवान कहाँ है ?

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Sunday, 7 October 2012

शहीदों का दर्द

छलक आते होंगे आंसू शहीदों के
अपने वतन की हालत देखकर
सोचते होंगे क्यों मर गए हम
इन खुदगर्जो के लिए

सपना जो देखा था शहीदों ने
एक खुशहाल वतन बनाने का
आज बिक रहे है वतनवाले ही
चंद कागज के टुकडों के लिए

दर्द से भर जाता होगा उनका भी दिल
जब जब जमीं पर देखते होंगे
लहू से सींचा था जिस जमीं को
आज उनपर कांटे उगते हुए

ये बात तो उठती होगी उनके भी मन में
कि क्या सोचा था और क्या पाया
सुनहरे भविष्य के लिए दी थी कुर्बानी
अब शहीदों को याद भी किया जाता है तो दिखावे के लिए

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Thursday, 4 October 2012

गरीब

कटे-फटे जीर्ण वस्त्रों में
अधढका तन वाला वो इंसान
हररोज लड़ता है जंग
जिंदा रहने के लिए

निकलता है कड़ी धूप में
भूखे पेट, नंगे पांव
हाथो में पड़े होते है फफोले
और पैरों में छाले
लिये औजार कंधो पर
दो वक्त की रोटी के लिए

झलकती है तन से हड्डियाँ
हो जाता है पसीने से तरबतर
जब चलाता है औजार अपनी, पत्थरों पर
पत्थरों को आकार देने के लिए

दर्द करता है कोशिश बहुत
उसे रोकने के लिए
मिलती है उसको तो हार
जब ठान लेता है वो
काज पूरा करने के लिए

पर इतने मेहनत के बाद
मिलता है जो उसको मेहनताना
कम पड़ जाते है उसके परिवार को
दो वक्त की रोटी के लिए

सबको खिलाकर, अधभरा पेट
सोता है घास फूस के झोपड़े में
सुबह उठते ही निकल जाता है
फिर वही जंग लड़ने के लिए 

Wednesday, 26 September 2012

दास्तान-ए-आम इंसान

आओ सुनाऊ एक दास्तान
जिसका नायक है एक आम इंसान
महंगाई करती इसको परेशान
सिर्फ चुनाव के समय ही कहलाता ये भगवान

कभी खुले आसमान के नीचे
भूखे पेट है सोता
कभी चिलचिलाती धूप में
नंगे पाँव है चलता

मुश्किलों में पढ़ता बढ़ता
जीने के लिए संघर्ष करता
नौकरी के लिए भटकता फिरता
मिले जो छोटी नौकरी तो हर्ष करता

महीने के पहले हफ्ते में होता है ठाट नवाबी
दूसरे हफ्ते से फिर सबकुछ लेता है उधारी
बसों और ट्रेनों में जिंदगी भर करता सवारी
सपना होता है उसका लेनी बड़ी गाड़ी

पेंशन से फिर कटता है उसका बुढ़ापा
नाती पोतों के संग खेलकर दिन गुजरता जाता
फिर आता है दिन जब वो बिस्तर से उठ नहीं पाता
बिस्तर में लेटे-लेटे ही सबको अलविदा कह जाता

Monday, 17 September 2012

यहाँ कागज के टुकडो पर बिकते है लोग (People of here are sold on pieces of paper)

ये कैसा जमाना आ गया, मै रहा हू सोच
यहाँ कागज के टुकडों पर बिकते है लोग

जनता का सेवक ही, जनता को रहा लुट
धर्म कि बात कौन कहे, यहाँ भाई-भाई में है फुट

डकैती का एक हिस्सा जाता है पहरेदारो को
यहाँ इनाम से नवाज़ा जाता है गद्दारों को

कानून के रखवालों के सामने लुटती है अबलाओ कि अस्मत यहाँ
लुटेरा बना है राजा, उसे है जनता कि फ़िक्र कहाँ

आज भूखा सो रहा सबको खिलानेवाला
एक झोपड़ी के लिए तरस रहा महलों को खड़ा करनेवाला

मंदिर मस्जिद से ज्यादा भीड़ होती है मधुशालाओं में
अब तो फूहड़ता नज़र आती है सभी कलाओं में 

धरती माँ का आह्वाहन (A call of Motherland)

कर रही आह्वाहन, धरती माँ नौजवानों से
जागो और संघर्ष करो, वतन के इन बेईमानों से

सूरज की गर्मी है तुझमे, तू ही है नदियों की तेज धार
जयचंद बैठे है गद्दी पर, इनको दो तुम उतार

बदलो कि गड़गहड़ाट तुझमे, है तुझमे ही बिजली सी चमक
पुकार रहा है देश तुम्हारा, अदा करो इसका नमक

हो संगठित तुम, एक ताक़तवर मुट्ठी बन जाओ
कोई ना तुम्हे सकता तोड़, ये दुनिया को तुम दिखलाओ

अन्याय अपने चरम पर पहुची, तुम लाचार बने हो क्यों
काँपेगी अन्यायी कि रुंह भी, सुभाष और भगत तो बनो

शोला जो तुम्हारे सीने में भरा, आज उसको दहक जाने दो
क्रांति जो सदियों से है राह देखती, उसे आ जाने दो

गुलामी कि बेडियाँ तोड़, अपने मन को तुम आज़ाद करो
वीरो ने जो दी थी कुर्बानी, उसे यूँही ना बर्बाद करो

हिलेगी तानाशाहों कि गद्दी, तुम्हारे हर हुंकार से
कब तक रहोगे सोये, अब जाग भी जाओ इस ललकार से

आज़ादी का सूरज जो डूब रहा, सूरज बन आसमान में छा जाओ
एक नया सवेरा तुम लाओ, एक नया सवेरा तुम लाओ