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एक अपील

ऐ घर पे बैठे तमाशबीन लोग लुट रहा है मुल्क, कब तलक रहोगे खामोश शिकवा नहीं है उनसे, जो है बेखबर पर तु तो सब जानता है, मैदान में क्यों नही...

Friday 20 September 2013

लाशों की तरह जीने से तो, लड़कर मरना अच्छा है,

2 comments:
सिल लिए हो होठ अपने,
कोने में छुप छुप रोते हो
कायरो सी ज़िंदगी है,
हर जुल्म चुप चुप सहते हो !

सुभाष, भगत और गाँधी की,
पावन धरा में तुमने जन्म लिया,
फिर अन्याय को तुमने क्यों,
अपनी नियति समझ लिया ?

लाशों की तरह जीने से तो,
लड़कर मरना अच्छा है,
हालातों से जो लड़ता है,
वही तो वीर सच्चा है !

तटस्थता में ही जीना है तो,
क्यों पहना इंसान का चोला है ? 
घर बैठ कुछ नहीं बदलने वाला,
सड़को पर निकलना अच्छा है !

छाया घना अँधेरा तो क्या
एक जुगुनू भी रौशनी कर जाता है ,
सूरज ना बन पाए तो क्या
दीपक की तरह जलना अच्छा है !

दे जवाब डरपोक मौन को
साहस भरी एक आवाज से ,
इस डरी सहमी ख़ामोशी से
बलिदानी ललकार अच्छा है !

अवसर की राह जो तकता है,
लगता नहीं कुछ उसके हाथ ,
राहों में जो नहीं रुकता है ,
उसका जीत तो पक्का है !