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एक अपील

ऐ घर पे बैठे तमाशबीन लोग लुट रहा है मुल्क, कब तलक रहोगे खामोश शिकवा नहीं है उनसे, जो है बेखबर पर तु तो सब जानता है, मैदान में क्यों नही...

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Saturday, 25 July 2015

अपना डर जीत ले

घनी अँधेरी रात हो, और तेरे ना कोई साथ हो
मुमकिन है कि तु डर भी जाय, जब अपना साया तुझे डराए
एक पल के लिए तु कुछ सोच ले, पीछे मुड के भी देख ले
अपना डर जीत ले, अपना डर जीत ले

जब बात कुछ नया करने की हो, नए क्षेत्र में मुकाम हासिल करने की हो
समस्या का समाधान ढूंढने की हो, या कौशल नया सीखने की हो
मुमकिन है कि तेरे पैर थम जाय, अनिश्चितता के बादल तुझे डराए
शुरुआत से पहले अभ्यास कर ले , अज्ञानता अपनी थोड़ी दूर कर ले
अपना डर जीत ले, आपना डर जीत ले

पढ़ाई प्राथमिक शाला या उच्च विद्यालय में हो, या फिर महाविद्यालय में हो
घड़ी परीक्षा की जब आ जाय, व्याकुल मन जब तुझे सताए
परिणाम की चिंता भुला दे, ध्यान सिर्फ पढ़ाई पर लगा दे
पढ़कर बुद्धि के भीत ले, अपनी जीत की पक्की तस्वीर खींच ले
अपना डर जीत ले, अपना डर जीत ले 

Thursday, 11 June 2015

जीत का मूलमंत्र

जीवन में कुछ अर्थपूर्ण करे
सपनों को अपने पूर्ण करे
जीवन के है अपने कुछ नियम
पालन से सफल होगा जीवन

एक लक्ष्य का करो निर्धारण
जिसका हो बार बार मनःउच्चारण
समय सीमा भी कर लो तय
और मन में कर लो दृढ़निश्चय

समर्पण और अनुशासन से
लक्ष्य की ओर बढ़ते ही जाना
दर्द और कठिनाई में
तुम ना कभी पीठ दिखाना

बड़ा है अगर लक्ष्य तो
छोटे टुकड़ों में लो बाँट
समय की पाबंदियाँ
इन पर भी रखो साथ

हर छोटे लक्ष्य की प्राप्ति पर
खुद को भी सम्मानित कर लो
थोड़े देर ही सही पर
ज़िंदगी में उमंग भर लो

धीरे धीरे जीतना तुम्हारी आदत होंगी
सफलता में फिर ना कोई बाधक होंगी
बेझिझक अब कर दो इसकी शुरुआत
जीत के मूलमंत्र का उठा लो अब लाभ

Friday, 24 April 2015

सियासी साजिशें

इन सियासत के गलियारों ने,
इंसानों को बाँट दिया
इनकी सियासी साजिशों ने
इंसानियत का गला काट दिया

सियासी साजिशों की
बहुत गहरी है जड़े
धरती के कई कोनों में
अभी भी बिखरी है धड़े

मौत के खेल की
कैसी है ये आजमाइश
धरती को लाल देखने की
जैसे किसी ने की हो फरमाइश

महज एक सियासी जीत के लिए
बलि चढ़ गई हजारों की
नफरत की दीवार खड़ी हो गई
दो इंसानों के बीच पहाड़ों सी

डरता हूँ नफरत की आग
कहीं इतनी ना फ़ैल जाय
इंसानियत तो निगल ही रहा
कही दुनिया ना निगल जाय 

Sunday, 10 November 2013

दिल्ली मै आ रहा हूँ

दिल्ली तेरी गलियों में फिर शोर होगा
वंदे मातरम की गूंज चहुंओर होगा
कुछ ख्वाब जो अधूरे रह गए थे, पूरा करने जा रहा हूँ
दिल्ली मै आ रहा हूँ, दिल्ली मै आ रहा हूँ

पिछली बार जब हम मिले थे
जागती आँखों से सपना दिखाया था मुझे
उन सपनों को हकीकत में बदलने जा रहा हूँ
दिल्ली मै आ रहा हूँ, दिल्ली मै आ रहा हूँ

तेरी सड़को, तेरी गलियों ने पुकारा है फिर मुझे
यूँ तो भीड़ होती है उस महफ़िल में बहुत
उस भीड़ में एक और इजाफा करने जा रहा हूँ
दिल्ली मै आ रहा हूँ, दिल्ली मै आ रहा हूँ

कुछ अरमान तुझसे मिले बिना पूरी ना होंगी
पर सर्द रहती है अक्सर हवायें तेरी
उन सर्द हवाओं को सहने जा रहा हूँ
दिल्ली मै आ रहा हूँ, दिल्ली मै आ रहा हूँ

Friday, 23 November 2012

शिकायत

उनकी बेखबरी का आलम तो देखो
लगी है भीषण आग उनके शहर में
और वो अपने महलों में बैठ
मधुर तरानों का लुत्फ़ उठा रहे है

रहनुमा बनके फिरते थे हमारी गलियों में
कहते हुए कि हर मुश्किल में साथ निभाऊंगा
आज जब हमारी ज़िंदगी जहन्नुम हो गई
वो कुर्सी पर बैठ मंद मंद मुस्कुरा रहे है

लंबी फेहरिस्त थी उनकी वायदों की
हमारी तंगहाल ज़िंदगी बदलने की बात करते थे
मौका दिया उनको वायदा निभाने की तो
हमको भूल झोलियाँ अपनी भरे जा रहे है

ईद हो या दिवाली संग होते थे हमारे
चेहरे पर मुस्कुराहट और होठों में दुआ रखते थे
अब दर पर जाते है उनके हाल ए ज़िंदगी कहने तो
मिलना तो दूर, हमसे आँखें चुरा रहे है 

Wednesday, 21 November 2012

इसी का नाम ही ज़िंदगी है शायद

बीच मझधार बह रहा हूँ, बिना पतवार के नाव में
ना हमसफ़र है, ना मंजिल का पता
गुमसुम सा, उदास सा, बैठा हूँ इंतज़ार में
कि आए कोई फरिस्ता और मंजिल का पता दे जाये

कभी कभी लगता है, मुझमें जां नहीं है बाकी
पर सर्द हवाएं मेरे जिंदा होने का अहसास करा जाती है
तन्हाई में एक पल भी गुजरता है सदियों की तरह
लहरें तो डराती ही है, अँधेरे का खौफ भी कम नहीं

एक अंजाना डर आँखों से नींद चुरा ले जाती है
जागता हूँ रातों में, जुगुनुओं और तारों के संग
सुबह का उजाला नाउम्मीदगी को करती है थोड़ी कम
पर शाम होते ही उम्मीद का दामन छूट जाता है

इस जलती बुझती उम्मीद की किरण के बीच
अनजाने मंजिल को तलाशना और रास्ता बनाना
डरावने माहौल में थोड़ा सा मुस्कुराना
इसी का नाम ही ज़िंदगी है शायद
इसी का नाम ही ज़िंदगी है शायद 

Monday, 19 November 2012

लकीरें

उस खुदा ने तो नहीं खींची थी लकीरें इस जमीं पर
क्यों खींच ली लकीरें तुने ऐ इंसान ?
ये जानते हुए भी कि मिट्टी में मिलना है सबको
क्यों बना लिए अलग अलग शमशान ?

देश, मजहब और जाति पर तो बाँट ही लिया
पर क्या फिर भी पूरा ना हुआ तेरा अरमान ?
रंग, लिंग, भाषा और बोली के भेद का
बना रहे हो नए नए कीर्तिमान

मतलब के लिए तो टुकडों पर बाँट दिया
क्या सोचा था इसका अंजाम
धूमिल होगी मानवता सारी
और ना रहेगा मोहब्बत का नामोनिशान

तुम कर लो लाख कोशिश मगर
दिलो के मोहब्बत खत्म ना कर पाओगे ऐ नादान
मानवता और नैतिकता तो बनी ही रहेगी
जब तक खत्म ना हो जाए ये जहान

Wednesday, 31 October 2012

दीपावली

दीपों का त्यौहार आया
पूरा देश जगमगाया
ढेरों खुशियाँ संग लाया
मन में उमंग छाया

राम की वापसी हुई थी इस दिन
पूरा हुआ था वनवास कठिन
रावण हरा घर पहुंचे थे राम
लंका जीत किये थे बड़ा काम

घर की होती रंगाई पुताई
चारो ओर दिखती सफाई
एक दूसरे को देते सब बधाई
बंटती रसगुल्ले और मिठाई

सज गए है सारे बाजार
खरीददारों की लगी कतार
फुलझडियों की लगी बहार
पटाखे करते आसमान को उजियार 

Saturday, 27 October 2012

दशहरा

जिसने किया था सीता का हरण
राम ने मारा था वो रावण
हर साल मर के लेता नया जनम
अब का है ये कैसा रावण

कागज़ के पुतले तो प्रतीक है
हम सब में छिपा बैठा है एक रावण
कागज के पुतले को दहन कर
क्या मार लिया अपने अंदर का रावण ?

बुराई पर अच्छाई की जीत का
त्यौहार है यह दशहरा
पर बुराई मिटने के बजाय
हो रहा और हरा भरा

बुराई तो तब हारेगी
जब हम अपने अंदर के रावण को मारे
आओ हम सब मिलकर बुराई ना करने
और बुराई का ना साथ देने का कसम खा ले 

Tuesday, 23 October 2012

सर्दी का मौसम

सिहर उठता है तन मन
जब चलती है मंद पवन
भाती मन को सूर्यकिरण
कि आया सर्दी का मौसम

हरित तृणों पर ओंस की बुँदे
लगती है मनभावन
सूर्यकिरण पड़ती जब इनपर
जैसे हो तारे करते टिमटिम

जहाँ भी देखो वहाँ दिखे
ऊनी कपड़ों में लिपटा बदन
आग का घेरा डाले है
आज यहाँ पर जन-जन

ठंडे पानी से नहाना
लगता है बहुत कठिन
सुबह जल्दी उठने का
नहीं करता है ये मन 

Sunday, 21 October 2012

सुनामी

याद आता है वो मंजर
जब कहर ढाया था समंदर
लहरों में थी उफान
आ गया था एक तूफ़ान

ऊँची लहरों ने किया प्रवेश
जैसे हो तबाही का श्री गणेश
गाँव हो या शहर
सब पर बरसा कहर

गाँव शहर सब डूबा लिया
मिट्टी में सबको मिला दिया
चली गई हजारों जान
गाँव शहर कर गया शमशान

सुनामी है इस कहर का नाम
बड़ी डरावनी है इसकी पहचान
रुंह तक काँप जाती है
जब जिक्र सुनामी की आती है 

Saturday, 13 October 2012

एक शख्स (अरविन्द केजरीवाल को समर्पित )

एक शख्स ने हिला दी है जड़े
सिंहासन पर बैठने वालों की
रोशन हुई है उम्मीदें
नाउम्मीदगी में जीने वालों की

लुटते थे जो बेख़ौफ़ वतन को
काँपने लगे है उनके भी हाथ
हर सड़क, हर गली मुहल्ले में
होती है बस उसकी बात


Friday, 12 October 2012

क्यों लगाया है उम्मीद मुसाफिर उनसे

क्यों लगाया है उम्मीद मुसाफिर उनसे
जो खुद नाउम्मीदगी का दामन थाम बैठे है
निकला है उन्हें तु जगाने
जो सोने का बहाना कर लेटे है


Thursday, 11 October 2012

हम यकीन करे भी तो किसपर करे


हम यकीन करे भी तो, किसपर करे 
यहाँ लोग दौलत के लिए, अपनों से दगा कर जाते है 

शराफत का चोला पहन, घूमते लोग 
बस्तियां उजाड़ते, नज़र आते है 

लोग कहते है जिसे, सच्चाई की मूरत 
वही लोगो से, ठगी करते हुए पाए जाते है 

रक्षक का तमगा ओढ़, फिरते है जो शान से 
भक्षक की तरह काम करते, नज़र आते है 

जनता की सेवा के लिए, सिंहासन पर बिठाया जिसे भी 
वही तानाशाहों की तरह, हुक्म फरमाते है 

जिन माँ-बाप ने मुश्किलों में पाला हमें 
लोग उन्ही माँ-बाप को, सड़क पर छोड़ जाते है 

सुबह शाम धर्म की बात करनेवाले 
अपनी तिजौरियों में, दान का पैसा छुपाते है 

पहरेदारी करना है जिनका काम 
वही चोरों से हिस्सा मांगते, नज़र आते है 

Wednesday, 10 October 2012

सुबह का इंतज़ार

छाया था घना कोहरा, काली अंधियारी रात,
सुबह का था इंतज़ार, कि हो सूरज से मुलाक़ात !
पल पल बीत रहे थे सदियों सी, सिंह रहा था दहाड़,
पतले वस्त्र थे तन पे और वो ठण्ड की मार !

कुंडली मारे सर्प, फन फैलाए रहा था फुफकार,
डर के भागे हम इधर उधर, चुभ गए कांटे कई हज़ार !
बिच्छू ने मारा डंक, पूरा विष हम पे दिया उतार,
विष धीरे धीरे चढ़ने लगा, हम किसको लगाते पुकार !

अजगर भी मुँह खोल बड़ा, सरक रहा था हमारी ओर,
समझ नहीं आ रहा था, भागे हम किस छोर !
सोचा पेड़ पर जाऊ चढ़, तो कम होगा साँप बिच्छू का डर,
कुछ दूर चढ़ा था ऊपर, पैर फिसला आ गिरा जमीं पर !

हाथ पांव थे सलामत,चोटिल हुआ कमर,
दर्द से दिल कराह उठा, दिमाग पर हुआ असर !
गिरा फिर उठ ना सका, हिम्मत दे गई जवाब,
चींटियों को मिल चूका था, पसंदीदा कबाब !

पेड़ के नीचे दर्द संग, फिर गुजरी पूरी रात,
धीरे धीरे सूरज उगने लगा, जगी थोड़ी सी आस!
धन्य है वो मानव , जिसने लिया मुझे देख,
वाहन की व्यवस्था कर, अस्पताल दिया भेज !

Wednesday, 26 September 2012

दास्तान-ए-आम इंसान

आओ सुनाऊ एक दास्तान
जिसका नायक है एक आम इंसान
महंगाई करती इसको परेशान
सिर्फ चुनाव के समय ही कहलाता ये भगवान

कभी खुले आसमान के नीचे
भूखे पेट है सोता
कभी चिलचिलाती धूप में
नंगे पाँव है चलता

मुश्किलों में पढ़ता बढ़ता
जीने के लिए संघर्ष करता
नौकरी के लिए भटकता फिरता
मिले जो छोटी नौकरी तो हर्ष करता

महीने के पहले हफ्ते में होता है ठाट नवाबी
दूसरे हफ्ते से फिर सबकुछ लेता है उधारी
बसों और ट्रेनों में जिंदगी भर करता सवारी
सपना होता है उसका लेनी बड़ी गाड़ी

पेंशन से फिर कटता है उसका बुढ़ापा
नाती पोतों के संग खेलकर दिन गुजरता जाता
फिर आता है दिन जब वो बिस्तर से उठ नहीं पाता
बिस्तर में लेटे-लेटे ही सबको अलविदा कह जाता

Sunday, 22 July 2012

मै जिंदगी को काटना नहीं, जीना चाहता हू

जिंदगी समझौतों से भरी होती है मगर
मै जिंदगी को काटना नहीं, जीना चाहता हू

दुनिया का कोई भी कोना अनदेखा न रहे
मै दुनिया के हर कोने कि सैर करना चाहता हू

दूर तक बस पानी ही पानी दिखाई दे
मै ऐसे झील में नाव में बैठ घूमना चाहता हू

देर रात तक मस्ती में डूबी पार्टियां हो
मै ऐसी पार्टियों में मस्ती में नाचना चाहता हू

वैसे तो जिंदगी में मिलती है खुशियाँ हज़ार
मै हर खुशी में ठहाको के साथ हसना चाहता हू

दुनिया में हर जगह कि भोजन कि अलग पहचान होती है
मै दुनिया के हर भोजन का स्वाद लेना चाहता हू

तेज रफ़्तार का अपना एक अलग मज़ा होता है
मै हर तेज रफ़्तार वाली वाहनों में सफर करना चाहता हू 

Friday, 20 July 2012

रौशनी कि तलाश

तलाशता हू रौशनी मै इस अँधेरी दुनिया में
अब तक तो लगी है बस निराशा हाथ
पर उम्मीदों पर टिकी है ये जहाँ
मै अपनी उम्मीदे कैसे छोड़ दू

जहा भी गया मिला बस अँधेरा
एक हल्का सा उजियारा भी न दिखाई दी
निकल आया हू बहुत दूर उसे ढूंढने
अपने को वापस कैसे मोड़ लू

रौशनी कि बाते सभी करते है मगर
अँधेरे में जीने कि सबको आदत है
रोज देखता हू सपना उसके मिल जाने की
वो हँसी सपना मै कैसे तोड़ दू 

Tuesday, 17 July 2012

अकेला चल निकला हू

अकेला चल निकला हू इस राह पर
जानते हुए भी कि मुश्किलों से भरी है मेरी ये डगर

चाह बस एक मंजिल पाने की
हौसला है सब कुछ गवाने की
हर सितम हँस के सह लूँगा
मुह से उफ़ तक न करूँगा

अकेला चल निकला हू इस राह पर
जानते हुए भी कि मुश्किलों से भरी है मेरी ये डगर

अगर साथ न मिला किसीका
तो भी बस बढता चलूँगा
अगर आया कोई तूफ़ान
तो उससे भी डटकर लडूंगा

अकेला चल निकला हू इस राह पर
जानते हुए भी कि मुश्किलों से भरी है मेरी ये डगर

अब तो मैंने लिया है ये ठान
मंजिल पर पहुचने पर ही होगा आराम
कदम बढाकर पीछे न हटूंगा
चाहे जो भी हो अंजाम

अकेला चल निकला हू इस राह पर
जानते हुए भी कि मुश्किलों से भरी है मेरी ये डगर


Monday, 16 July 2012

आवारा मन (Maverick Mind)

आवारा मन न जाने क्यों भटकता है
कभी इस गली तो कभी उस गली टहलता है

कभी बर्फीले पहाड़ पर होता है
तो कभी समंदर के बीच
कभी इसे फूलों कि सुगंध भाती है
तो कभी घनघोर जंगल डराती है

आवारा मन न जाने क्यों भटकता है
कभी इस गली तो कभी उस गली टहलता है

कभी उड़न खटोले पर होता है
तो कभी झीलों में नाव कि सैर करता है
कभी सुनता है नदियों कि कल कल
तो कभी देखता है मौसम कि हलचल

आवारा मन न जाने क्यों भटकता है
कभी इस गली तो कभी उस गली टहलता है

कभी रिमझिम बारिश में भीगता है
तो कभी ठण्ड से सिहरता है
कभी हरियाली इसे लुभाती है
तो कभी गर्मी इसे झुलसाती है

आवारा मन न जाने क्यों भटकता है
कभी इस गली तो कभी उस गली टहलता है