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एक अपील

ऐ घर पे बैठे तमाशबीन लोग लुट रहा है मुल्क, कब तलक रहोगे खामोश शिकवा नहीं है उनसे, जो है बेखबर पर तु तो सब जानता है, मैदान में क्यों नही...

Friday, 2 November 2012

दुविधा

छाया है घना कोहरा
या सुलग रही है कहीं पर आग
ये भीड़ है तमाशा देखने वालों की
या जनता गई है जाग

ये हाथों में तिरंगा लहरानेवाले
वंदे मातरम का नारा लगानेवाले
पन्द्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी आया है
या है ये आज़ादी के परवाने

ये बादलों की गड़गड़ाहट है
या जनता रही दहाड़
निकली है भीड़ सैर पर
या फेंकने सिंहासन को उखाड़

यहाँ हर कोई है गुस्से में
या चेहरे की ऐसी ही है बनावट
आए है ये व्यवस्था परिवर्तन के लिए
या थोड़े दिनों की है कसावट  

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