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एक अपील

ऐ घर पे बैठे तमाशबीन लोग लुट रहा है मुल्क, कब तलक रहोगे खामोश शिकवा नहीं है उनसे, जो है बेखबर पर तु तो सब जानता है, मैदान में क्यों नही...

Wednesday, 2 December 2015

चल मिटा ले फासले

कुछ गलतफहमियाँ है, तेरे मेरे दरमियाँ,
चल मिटा लें फासले, कुछ गुफ़्तगू कर लें,

रूठी रहोगी, आखिर कब तलक,
मै इधर तड़पता हूँ, और तु उधर,
मेरी मौजूदगी को यूँ, नजरअंदाज ना कर,
चिर जाती है सीना, देख तेरी गैरो सी नजर,
चल मिटा ले फासले, कुछ गुफ़्तगू कर ले,

तेरी खामोसियाँ, खंचर सी है चुभने लगी,
दूरियाँ हर एक चुप्पी पर तेरे, बढ़ने लगी,
एक आवाज देकर, रोक ले मुझे,
ऐसा ना हो कि दूर हो जाऊँ, पहुँच से तेरे,
चल मिटा ले फासले, कुछ गुफ़्तगू कर ले,

एक पल के गुस्से में, भूल गई वो वादा,
हर हालात में, साथ निभाने का वो इरादा,
कुछ कमियाँ मुझमे है,ये मै जानता हूँ,
छोड़ो गुस्सा हुई मुझसे ही गलती,ये मै मानता हूँ,
चल मिटा ले फासले, कुछ गुफ़्तगू कर ले,






1 comment:

  1. I find the heartfelt plea for reconciliation in this poem to be truly moving.

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