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एक अपील

ऐ घर पे बैठे तमाशबीन लोग लुट रहा है मुल्क, कब तलक रहोगे खामोश शिकवा नहीं है उनसे, जो है बेखबर पर तु तो सब जानता है, मैदान में क्यों नही...

Thursday, 4 October 2012

गरीब

कटे-फटे जीर्ण वस्त्रों में
अधढका तन वाला वो इंसान
हररोज लड़ता है जंग
जिंदा रहने के लिए

निकलता है कड़ी धूप में
भूखे पेट, नंगे पांव
हाथो में पड़े होते है फफोले
और पैरों में छाले
लिये औजार कंधो पर
दो वक्त की रोटी के लिए

झलकती है तन से हड्डियाँ
हो जाता है पसीने से तरबतर
जब चलाता है औजार अपनी, पत्थरों पर
पत्थरों को आकार देने के लिए

दर्द करता है कोशिश बहुत
उसे रोकने के लिए
मिलती है उसको तो हार
जब ठान लेता है वो
काज पूरा करने के लिए

पर इतने मेहनत के बाद
मिलता है जो उसको मेहनताना
कम पड़ जाते है उसके परिवार को
दो वक्त की रोटी के लिए

सबको खिलाकर, अधभरा पेट
सोता है घास फूस के झोपड़े में
सुबह उठते ही निकल जाता है
फिर वही जंग लड़ने के लिए 

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